MSP: किसानों की आँखों में अब तक बहुत सारी आस है, लेकिन सरकार ने उनकी बातों को ध्यान में नहीं लिया। 13 फरवरी से हमारे किसान अपनी आवाज़ उठा रहे हैं, माँग कर रहे हैं कि MSP पर कानून बनाया जाए।
पंजाब में हमारे किसानों की जीवन धारा गेहूं और धान पर ही निर्भर है। यहाँ तक कि सरकारी एजेंसियाँ भी पहले ही 97 फीसदी धान को MSP पर खरीद रही हैं और 80 फीसदी गेहूं को भी खरीद रही हैं। लेकिन क्या हमारे किसानों की मुख्य मांग इतनी अधूरी है? क्या उनकी मेहनत और संघर्ष को इतना ही महत्व नहीं दिया जा सकता? यह एक न्यायसंगत सवाल है। हम सभी को मिलकर उनके साथ खड़ा होना चाहिए, उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए। वे हमारे भविष्य के निर्माता हैं, और हमें उनके साथ उनके अधिकारों का समर्थन करना चाहिए। यह समय है कि हम सभी एक साथ उठें और किसानों के लिए न्याय की मांग करें।
पंजाब के किसान अब बासमती चावल की बेहतरीन वैरायटी की मांग कर रहे हैं, जो उन्हें अच्छे दामों पर सोने का सुनहरा अवसर प्रदान कर रहे हैं। यह बासमती का सहयोगी भी हो रहा है। विशेषज्ञ का मानना है कि पंजाब के किसान पहले से ही मुख्य सरकारी मंजूरी का लाभ उठा रहे हैं, जैसे कि वह स्थान। इसी कारण से, पूरे देश में मेघालय के बाद, पंजाब के किसान अब अमीर माने जा रहे हैं।
भारत के किसानों के संघर्ष की जादुई कहानी सुनने को मिल रही है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, देश में छह प्रतिशत किसानों को यह लाभ नहीं मिलता है। जो भी किसान इस छोटी संख्या में अमीरी का हिस्सा हैं, वे ज्यादातर पंजाब और हरियाणा के हैं। पंजाब में विकसित हो रहे कृषि क्षेत्र में लगभग 97 प्रतिशत धान और 75-80 प्रतिशत राजस्व सरकार द्वारा दर्शाया जाता है, जो वास्तव में इस क्षेत्र के किसानों को आर्थिक सहायता प्रदान करता है।
वहीं, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सरकारी खरीद की दर बहुत कम है, जिससे किसानों को अपनी उत्पादों का ठीक से मूल्य नहीं मिल पा रहा है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार, केंद्र सरकार ने 344.86 लाख मीट्रिक टन धान के बदले कुछ किसानों को धनराशि दी है, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में थोड़ी सुधार हो सके। इन किसानों की संख्या में पंजाब का हिस्सा 59 प्रतिशत था, जो उनके अनुभवों को और भी दुखद बनाता है।
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मेरा दिल जज़्बात से भरा हुआ है जब मैं सोचता हूँ कि हम किसानों को किस तरह से अपनी मेहनत का फल नहीं मिल रहा है। हम तो अपनी जान लगा कर फसलें उगाते हैं, लेकिन उन्हें बेचने के लिए मिलने वाला मूल्य कितना ही कम होता है।
सरकारें तो एक ओर हमें नई फसलों की खेती करने के लिए प्रोत्साहित कर रही हैं, पर उन्हीं की निगाहों में हमारी मेहनत का सही मूल्य कहाँ। उदाहरण के तौर पर, सूरजमुखी के बीजों की कीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य पर होनी चाहिए थी, जो 6,400 रुपये प्रति क्विंटल है, लेकिन हमें मिली सिर्फ 4,000 से 5,000 रुपये क्विंटल कीमत।
हमें ये समझना है कि हमारी मेहनत और उत्साह का कोई मोल नहीं है इन बाजारों में। हमारी आवाज किसी को सुनाई नहीं देती। अब यह समय है कि हम सभी मिलकर अपने हक की लड़ाई लड़ें और अपनी फसलों को सही मूल्य पर बेचने का अधिकार हासिल करें।
MSP: मक्के की कीमत 1,000 रुपये प्रति क्विंटल तक गिरी
किसानों के लिए यह समय बहुत मुश्किल है। उनके सामने मक्के और मूंग की कीमतों में गिरावट की चुनौती है। मक्के की कीमतें अब तक 1,000 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच गई हैं, जो बेहद चिंताजनक है। और मूंग के लिए भी हालात बिल्कुल सही नहीं हैं। गोवा की तरह 7,755 रुपये प्रति क्विंटल का एमएसपी घोषित होने के बावजूद, किसानों को सिर्फ लगभग 6,000 रुपये ही मिल रहे हैं। यह स्थिति उनके लिए बहुत ही चिंताजनक है।
किसानों को यह नुकसान झेलना पड़ रहा है क्योंकि वे अपने मेहनत के नतीजे को नहीं देख पा रहे हैं। उन्हें अधिक लाभ की उम्मीदें थीं, लेकिन यहाँ तक कि एमएसपी के दायरे में भी नामुमकिन गिरावट हो रही है। यह कैसे सही है? यह सोचकर किसानों का दिल तोड़ रहा है। और इसके साथ-साथ, दूसरी फसलों की भी कीमतें कम होने की समस्या बड़ रही है। इसलिए, किसान अपना ध्यान गेहूं और धान की ओर नहीं ले रहे हैं। यह उनके लिए संघर्षपूर्ण समय है, जहाँ उन्हें सहारा और समर्थन की जरूरत है।
सरकार हमें बहुत बार लेकिन हमेशा वही किसानों के हित में नहीं देखती। हर साल उन्होंने तो अलग-अलग फसलों के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस घोषित की है, परंतु वास्तव में यह धान, गेहूं और कभी-कभी सोयाबीन जैसी कुछ ही फसलों पर होती है। और बाकी फसलों के लिए, व्यापारियों को खरीदने की आजादी है, जो अक्सर किसानों को उनकी वास्तविक मूल्य से कम पैसे देते हैं। हमें न्याय और समानता की आवश्यकता है। हमारी मांग है कि सरकार कानूनों में सुधार करे और हर फसल के लिए मिनिमम सपोर्ट प्राइस की गारंटी दे। बिना इसके, हमारे किसानों को न्याय मिलना असंभव है। कहीं नहीं जाती है उनकी मेहनत की कद्र। और इस असंवेदनशीलता से, बजाय चावल के, हमें मक्की की खेती के लिए भी बहुत ज्यादा पैसे खर्च करने पड़ेंगे। इससे किसानों की तो बहुत अधिक मुश्किलें बढ़ेंगी।